पहले हम खाना खाते थे, अब खाना हमको खाता है
मॅंहगाई के इस आलम में, यारों बडा मजा आता है
खाद्यान की कीमत सुन कर, मध्य-वर्ग ही शर्माता है
चीनी की कडवाहट से तो तीखा भी मन को भाता है
अच्छे दिन आने वालें हैं ये मजाक भी कर जाता है
मॅंहगाई के इस आलम में, यारों बडा मजा आता है
दालें आॅंखे फाड. रही हैं जेबें सब की ताड. रही हैं
चावल की कीमत तो देखो, धरा में जिंदा गाढ रही हैं
आटा ,टाटा बोल रहा है, मैदा सब को तोल रहा है
घी ,तेल की मजबूरी है तभी तो चर्बी घोल रहा है
भोंजन में शूगर सुनकर के, थोडा धीरज बॅंध जाता है
मॅहगाइ के इस आलम में-----------------
आलू, मटर, टमाटर, अदरक हमें देखकर चिल्लाते है
धनिया,प्याज लहसुन नरभक्षी जिन्दा ही हमको खाते है
गोभी, बेंगन ,लौकी, तोरी, भिन्डी, टिन्डा और चचिन्डा
हमको एेसे काट रहे हैं , महिसासुर को, माॅं चामुन्डा
मध्य - वर्ग भूखा मरता है , धनवाला दावत खाता है
मॅंहगाइ के इस आलम में------------------
राजनीति, अब फेल हो गयी,सारी जनता खेल हो गयी
घुॅंस पेंठिये घुसे जा रहे ,अब ये लोकल रेल हो गयी
संंसद की कैंटिन है सस्ती , नेता के घर पल जाते हैं
मॅंहगाई का कारण पूछो ,सारे नेता टल जाते हैं
लोकसभा में देखो जोकर , जोर जोर से चिल्लाता है
मॅंहगाई के इस आलम में------------------
नैपाली और बंगला देशी, रोज यहाॅं पर घुस आते है
शरणागत और अगल-बगल के भारतवाशी कहलाते है
ये घुॅंस पैंठिये , मेरे घर का, सारा राशन खा जाते हैं
इस लावारिस बोट बैंक से, टुच्चे नेता बन जातें हैं
जनगणना भी मजबूरी है , ये आॅंकडा दिख लाता है
मॅंहगाइ के इस आलम में ------------
घर-घर में खाने के लाले जगह - जगह देखो घोटाले
बे घर दीन दुखी मरता है ,चोरों के माले पर माले
हर गरीब ये झेल रहा है,खाद्य निगम बस खेल रहा है
सारी दुनिया देख रही है ,मुॅंह पर कीचढ फेंक रही है
वैमनस्य की राजनीति में, ये भी मुद्दा बन जाता है
मॅंहगाई के इस आलम में-------------------
घर-घर में प्रापर्टी डीलर खेत के टुकडे काट रहा है
अव्वल - दोयम की किमत को मानचित्र में छाॅंट रहा है
धरती माता भू-माफिया के हाथों से बिक जाती है
नई पीढियों की किस्मत को ये मजबूरी लिख जाती है
माया की इस भाग दौड में गाॅंव घिसट कर मर जाता है
मॅंहगाई के इस आलम में-----------------
जनसंख्या को डेढ अरब से उपर हम ही बढा रहे हैं
मॅंहगाई का भूत स्वयं के उपर हम ही चढा रहे हैं
जनसंख्या और मॅंहगाई से अर्थ व्यवस्था डोल रही है
प्रजातन्त्र के इस नाटक की सारी पोलें खोल रही है
आत्मदाह का सबसे सस्ता ये कारण हमको भाता है
मॅंहगाई के इस आलम में---------------
सरकारी ऋण चाहने वाला सौ-सौ चक्कर काट रहा है
धनपतियों के घर-घर जाकर बैंक लोन को बाॅंट रहा है
घर-बार को गिरवी रख कर ,ये गरीब तो मर जाते है
खून पसीने का वो पैसा फर्जी शपत पत्र खाते है
रिजर्व-बैंक तो नौ के दस को करने वाला बन जाता है
मॅंहगाई के इस आलम में ----------------
वित्त व्यवस्था डोल रही है क्या इस पर चिन्तन होता है
कृषि प्रधान ये वसुन्धरा है,अन्न कहाॅं पर क्यों खोता है
भाव- भंगिमा नेताओं की व्यापारी को दिख जाती है
प्रजातन्त्र की शेयर-बाजारों से किमत लिख जाती है
लोकतन्त्र के इस कीचढ में फंसी पढी भारत माता है
मॅंहगाई के इस आलम में, यारों बडा मजा आता है
अब डीजल पैट्रोल है सस्ता,फिर क्यों हालत है खस्ता
अच्छे दिन अब ,कब आयेंगे, ढूंढो भैया जल्दी रस्ता
मध्य - वर्ग, नंगे - भूखे की, अब केवल रोटी आशा है
मंहगायी और काला धन ही बोट-बेंक की अभिलाशा है
कवि आग तो नेताओं की, औकातों को दिखलाता है
मॅंहगाई के इस आलम में, यारों बडा मजा आता है!!
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