Friday, 17 July 2015

क्षण-भंगुर है सुख तेरा....

क्षण-भंगुर है सुख तेरा तू जिसके पीछेे जाता है,
एक मृगतृष्णा की खातिर कितना नीचे जाता है.
नारी देह सदां से आकर्षण बनकर रही जमाने में,
प्रेम कुछ नहीं मात्र भ्रम है तुझको खींचे जाता है.
शारीरिक उन्माद सभी में एक ही जैसा होता है,
जब चढ़ता ऋषियों-मुनियों का व्रत हिल जाता है.
कर्णप्रिय संगीत सुने दृश्य भी नयनाभिराम मिलें,
यही एक मस्ती का कारण इन्द्रियों को बहकाता है.
वायु सुगन्धित ही पाएं, भोजन भी स्वादिष्ट मिले,
इसी कल्पना में मनुष्य हृदय की ना सुन पाता है.
हर इन्द्री की इच्छा अपनी तेरा अपना कोई नहीं,
इस शरीर से भी तेरा बस भोग-विलास का नाता है.
मात्र एक स्पर्ष कल्पना में क्या-क्या दिखलाता है,
कूद कोई दीवार गया, कोई फांसी पे चढ़ जाता है.
रही आत्मा सदां अकेली कोई नहीं अभिलाषा है,
मिलन शरीरों का है केवल ये न प्रेम कहलाता है.
एक लगन लग जाय रूप की कैसे रंग बदलता है,
कोई करे पाने को तपस्या हरके कोई ले जाता है.
इसमें कुछ ईश्वरीय नहीं केवल शारीरिक इच्छा है,
भूख लगे तो यही आदमी चोरी तक कर जाता है.
चंद उबलते कतरे हैं जो कर देते है मजबूर तुझे,
इनकी सन्तुष्टि के कारण तू खुद ही पछताता है.
सभी तत्व अपने तत्वों में बस बिलीन हो जाते है.
तू कोई अस्तित्व नहीं है मिटटी में मिल जाता है.
तेरी जिज्ञाषा के आगे कहाँ किसी की चलती है,
ईश्वर को मानेगा कैसे अंतरात्मा को झुठलाता है.
अपने कर्मों से ही केवल भाग्य किया निश्चित तूने,
सत्य यही है अटल एक जो स्वर्ग-नर्क कहलाता है.
तू भी है एक तुच्छ पुरुष तो कौन अनोखा है तुझमें,
फिर कैसे कहता है 'अली' ईश्वर से भी मेरा नाता है.

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