यूँ तो हसरत थी इक आशियाँ बनाने की,
शायद नज़र लग गई इस ख़याल को जमाने की,
ख़ुशियाँ बाँटने मे कुछ यूँ मशगूल हो चले हम,
खत्म हो गई सारी ख़ुशियाँ मेरे ख़जाने की,
यूँ तो हरपल मे मेरी ठोकरे और ग़म शामिल,
फिर भी जाने क्युँ अदा भूली न मुस्कुराने की,
खुद से रूठे और रूठ कर खुद मान गये,
किसी को थी कहाँ फुरसत हमे मनाने की,
प्यार लोगों के दिल मे था कहाँ मेरी खातिर,
जो चाहते उसे मेरे हश्र पे जताने की,,,,,
यूँ तो हसरत थी इक आशियाँ बनाने की,
नज़र लग गई इस खयाल को जमाने की