Tuesday, 21 July 2015

मेरे मुल्क के मालिकों....

मेरे मुल्क के मालिकों
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मेरे मुल्क के मालिकों
आपने यह देश की क्या हालत बना दी
गुलामी ने तो लुटिया डुबाई थी
आपने तो लुटिया ही गुमा दी
भ्रष्टाचार के सारे तार आपसे जुड़ गये
ट्यूबलाइट आपका जला
और फ्यूज हमारे उड़ गये
ऐसी देशभक्ति सबको फले
कटोरा लेकर आये थे
और सूटकेस भरके चले
अब देश पराया
और आप कुर्सी के सगे हो गये
हरियाली दिखी तो आदमी से गधे हो गये
भूख ने यहां तक तुमको तोड़ा
कि पशुओं का चारा तक नहीं छोड़ा
आप ही ने तो कहा था हुजूर
हम जब सत्ता में आयेंगे
एक-एक भ्रष्टाचारी को
बिजली के खम्भे से लटकायेंगे
आप तो उनसे भी बड़ा झांसा दे गये
लटकाना तो दूर
आप तो खम्भा ही उखाड़कर ले गये
मेरे मुल्क के मालिकों जवाब दो
पिछले पचास सालों का हिसाब दो
मुक्ति का बिरवा क्यों ऐसा खिला
कि बुढ़ापे को लकड़ी और
बचपन को खिलौना नहीं मिला
पूरी एक पीढ़ी
अभावों में पैदा हुई और अभावों में ही मर गयी
सर तो आपके सजदे में था
फिर उसकी लाश किधर गयी ?
आपको क्या मालूम
धरती पर कहां गरीबी की रेखा है
आपने तो हमेशा आसमान से भारत को देखा है
धन्य हो बाबा अम्बेडकर आप
अच्छा संविधान बनाया गरीबों के बाप
चपरासी के लिए एम. ए.
और मंत्री के लिए अंगूठा छाप
प्रतिभावान दर-दर की ठोकरें खायें
और संविधान के कातिल देश चलायें
कोना-कोना अपराधियों से भर गया है
शास्त्री जी क्या मरे
पूरे देश का सपना मर गया है
मगर आप वक्त की आवाज कब सुनते हैं
वो तो हमीं नालायक हैं जो आपको चुनते हैं
हमारा जीना भी देश के लिए भार
और आपका मरना भी जैसे त्यौहार
वो मातम क्या जिसमें व्हिस्की या रम नहीं होती
आपकी तो अर्थी भी किसी शादी से कम नहीं होती
आप तो मरकर भी स्टेच्यू बनकर जिए जाते हैं
हमें तो कंधे भी किराए से दिए जाते हैं
भरे पेटों
भूखे पेटों को आश्वासनों की बोलियां
और अपने लिए हाजमे की गोलियां
फिर भी वजन कम नहीं होता
हैरत तो इस बात पर होती है यार
जिनने देश हजम कर लिया
उनसे खाना हजम नहीं होता !
माफ करना हुजूर
आपने जिन्हें पकवान समझकर चखे हैं
वो पकवान नहीं
आपकी थाली में हम रखे हैं
नमकहराम मालिकों
जिस जनता ने आपको चुना
आपने उसी को गोलियों से धुना
और अब उसी जनता के भय से चाहिए
आपको जेड श्रेणी की सुरक्षा
हमारे ही नेता और हमसे ही रक्षा
अच्छा !
हमारी कौन करेगा रक्षा ?
हम मरे तो आपके लिए समस्या खड़ी हो गई
आपकी सुरक्षा देश से बड़ी हो गई
आगे-पीछे चार-चार कमांडो
सांडो
कार से जरा नीचे तो उतरो
पांव में छाले नहीं पड़ जायेंगे
हमारी मिटटी का मन काला नहीं है
जो आप काले पड़ जायेंगे
राम-राज्य के धोबियों
सत्ता के लोभियों
आप हमारा मुंह न खुलवायें
सीमा पर सीस हम कटवायें
और सूरमा भोपाली आप कहलायें
तोप और बन्दूक को तो फेंको
मुंह की मक्खी ही उड़ा कर देखो-
कायरता जिस चेहरे का श्रृंगार करती है
उस पर मक्खी तक बैठने से इंकार करती है
माफ करना हुजूर
यह देश की सरहद है
आपके बंगले का बैडरूम नहीं
जहां रोज नई-नई बुलबुलें चहकती हैं
सरहदें खुशबू से नहीं, खून से महकती हैं
और मत दो हमें आश्वासनों के झूले
हम शहीद हुए तो हमारा नाम तक भूले
दीये हमारे घरों के बुझे
और इतिहास में पांव आपके पुजे
और तो और लहू से हम नहाये
और होली खेलते हुए आपके फोटो आये
अब तो अखबार आते ही ब्लडप्रेशर बढ़ता है
सुबह-सुबह आपकी सूरत देखना पड़ता है
टी. वी. आपके दम पर टिका है
इतिहास हमेशा झूठों ने लिखा है
कहां तक भोगें इस दोगलेपन का शाप
खिलें हम और महकें आप
जबान खुश्क है, कौन इस बेशर्मी पर थूके
बलिदान का सौदा करने से भी नहीं चूके
जिसने देश की रग-रग में बारूद भरदी
उसी को जीती हुई जमीन वापस करदी
अब सीमा पर हम नहीं आप मरेंगे
या वो कागज नहीं बनेगा
जिस पर आप दस्तखत करेंगे
हुजूर आपके इतने अहसान क्या कम हैं
असली गुनहगार तो हम हैं
हमीं अगर मौसम का रुख देखकर फसल बोते
तो हम भिंडी और आप टमाटर नहीं होते
क्या जलवा है हुजूर आपका
प्रजातंत्र आपका चपरासी है
संसद आपकी दासी है
किसमें हिम्मत है जो आपके गरेबान पर हाथ डाले
किए जाओ घोटाले पर घोटाले
दिये जाओ कानून को धोखे पर धोखे
लगाए जाओ भ्रष्टाचार के चौके पर चौके
अंपायर अपना है
ऐसा अवसर मत खोना
जब तक एक भी दर्शक जिन्दा है
आप आउट मत होना
देश आपके अब्बा की जागीर है, खाओ
मगर एक बात तो बताओ
उस दिन दुनिया का कौनसा वकील लाओगे
जब अपराधियों के कटघरे में हम नहीं
तुम नजर आओगे
तब याद आयेंगे गुलजारीलाल नन्दा
जब पड़ेगा गले में फांसी का फंदा
तब समझोगे देशद्रोहियो !
देशभक्त क्यों मरकर अमर होता है
भगत सिंह और तुम्हारे फंदे में क्या अंतर होता है
हम आजादी का जश्न उसी दिन मनायेंगे
जब आप लालकिले पर नहीं
हमारे दिलों पे झंडा फहरायेंगे
--साभार (श्रद्धेय माणिक वर्मा जी के काव्य-संग्रह 'मुल्क के मालिकों जवाब दो' )

Friday, 17 July 2015

क्षण-भंगुर है सुख तेरा....

क्षण-भंगुर है सुख तेरा तू जिसके पीछेे जाता है,
एक मृगतृष्णा की खातिर कितना नीचे जाता है.
नारी देह सदां से आकर्षण बनकर रही जमाने में,
प्रेम कुछ नहीं मात्र भ्रम है तुझको खींचे जाता है.
शारीरिक उन्माद सभी में एक ही जैसा होता है,
जब चढ़ता ऋषियों-मुनियों का व्रत हिल जाता है.
कर्णप्रिय संगीत सुने दृश्य भी नयनाभिराम मिलें,
यही एक मस्ती का कारण इन्द्रियों को बहकाता है.
वायु सुगन्धित ही पाएं, भोजन भी स्वादिष्ट मिले,
इसी कल्पना में मनुष्य हृदय की ना सुन पाता है.
हर इन्द्री की इच्छा अपनी तेरा अपना कोई नहीं,
इस शरीर से भी तेरा बस भोग-विलास का नाता है.
मात्र एक स्पर्ष कल्पना में क्या-क्या दिखलाता है,
कूद कोई दीवार गया, कोई फांसी पे चढ़ जाता है.
रही आत्मा सदां अकेली कोई नहीं अभिलाषा है,
मिलन शरीरों का है केवल ये न प्रेम कहलाता है.
एक लगन लग जाय रूप की कैसे रंग बदलता है,
कोई करे पाने को तपस्या हरके कोई ले जाता है.
इसमें कुछ ईश्वरीय नहीं केवल शारीरिक इच्छा है,
भूख लगे तो यही आदमी चोरी तक कर जाता है.
चंद उबलते कतरे हैं जो कर देते है मजबूर तुझे,
इनकी सन्तुष्टि के कारण तू खुद ही पछताता है.
सभी तत्व अपने तत्वों में बस बिलीन हो जाते है.
तू कोई अस्तित्व नहीं है मिटटी में मिल जाता है.
तेरी जिज्ञाषा के आगे कहाँ किसी की चलती है,
ईश्वर को मानेगा कैसे अंतरात्मा को झुठलाता है.
अपने कर्मों से ही केवल भाग्य किया निश्चित तूने,
सत्य यही है अटल एक जो स्वर्ग-नर्क कहलाता है.
तू भी है एक तुच्छ पुरुष तो कौन अनोखा है तुझमें,
फिर कैसे कहता है 'अली' ईश्वर से भी मेरा नाता है.